फिर से नई एंट्री
रात के १२ बजे मेरे छोटे बेटे का फोन आया की- ' किसी ने बिल्ली के 2 बच्चे सड़क पर फेंक दिए है क्या करना है ?"
कोलकाता में तो बारिश का मौसम सितम्बर तक चलता है इधर दो -तीन दिनों से कुछ ज्यादा ही बारिश हो रही थी मुझे ये सुनते ही सिहरन हो गई की उन नन्हे मासूमों का क्या होगा। सड़क पर मतलब कुत्तों द्वारा नोचें जाने का भी और अगर बच गए तो इस बारिश से कैसे बचेंगे। हमने तुरंत जबाव दिया कि " ऊपर लेकर आओ ( पांच तल्ले ऊपर घर में ) 10 मिनट के अंदर दोनों बच्चें हाजिर। उन बेचारों की आँखे भी ठीक से नहीं खुली थी। मेरे पास जितनी भी बिल्लियों ने बच्चें दिए है उन बच्चों की आँखे १० दिन में खुली। इस लिए मैंने ये अंदाज लगाया की ये बच्चे अभी 10 दिन के भी नहीं हुए है। बिना माँ के इतने छोटे बच्चों को कैसे पालेगे इन्हे तो प्रत्येक 30 मिनट पर दूध चाहिए। फिर इनकी माँ होती तो इनकी साफ़ - सफाई करती रहती इन्हे भीगा और गन्दा नहीं रहने देती। अब माँ की अनुपस्थिति में हम इन्हे कैसे सूखा रख पाएंगे। दूध तो फिर भी समय से पिला देंगे उन्हें सूखा रखने की कोशिश भी करेंगे किन्तु जब हम सो जायेगे तब इनकी देखभाल कैसे होगी।
कितना मुश्किल होता है बिना माँ के बच्चों का रहना वो भी तब जब उनकी आँखे भी न खुली हो। चार पैर के नन्हे बच्चे इस नए माहौल के आदि नहीं थे उन्हें तो अपनी माँ से चिपक कर सोना और दूध पीना ही आता था उन्होंने किसी और को देखा ही नहीं और यहां दो पैर वाले जीव से मुलाकात जो उन्हें ड्रापर के जरिये दूध पिलाने की कोशिश कर रहा था।
वे दुखी होकर अपनी माँ को बुलाने के लिए जोर - जोर से रो रहे थे। हमने उन्हें दूध पिला कर एक गत्ते के डिब्बे में बिस्तर लगा कर सुला दिया लेकिन तीन रात तक उन्होंने हमें बहुत -बहुत परेशान किया।
अब उन्हें आये हुए ५ दिन हो गए थे, रोना तो कम हुआ किन्तु शैतानियां शुरू हो गई। अगर उन्हें हम एक -दो घंटे नहीं दिखते तो वो चिल्ला - चिल्ला कर परेशान हो जाते। बड़े होने के साथ - साथ डिब्बे से बाहर आने की कोशिश भी आरंभ हो गई।
आज जैसे ही हम नाश्ता लेकर रूम में आये तो देखा की गत्ते के डब्बे में एक बच्चा नहीं है। हमने बिस्तर से तकिये वगैरह उठा कर देखे कि कही छुपा न हो किन्तु उसके रोने की आवाज निरंतर आ रही थी। आवाज सुनकर जब उस दिशा में ध्यान दिया तो उसकी हालत देखकर मेरे पसीना छूट गया की जनाब तो पलंग और दीवार के बीच की पतली सी दरार में मुंह नीचे, धड़ ऊपर किये हुए पड़े है। उन्हें कैसे निकाले ये गहन चिंता का विषय था। पलंग इतना भारी कि बिना दो -तीन लोगो की मदद के खिसक ही नहीं सकता था । दोनों बेटे भी कोलकाता के बाहर थे और इतनी जल्दी मददगार लोगो का इंतजाम भी नहीं हो सकता।
उसका रोना सुनकर तो हमें लग रहा था की मेरा हार्ट फेल हो जायेगा। हमने अपना हाथ दरार में डाला तो चूड़ी अटक गई , चूड़ी निकाल कर हाथ फिर से बढ़ाया तो उसके शरीर तक नहीं पहुँच रहा था। किन्तु किस्मत अच्छी थी की उसकी पूंछ मेरे हाथ में आ गई और हमने उसे खींच कर अपने सीने से लगा लिया। मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसे निकालने के बाद दूध पिला कर सुला दिया और फिर कमरे में उसके फसने के जितने भी स्थान थे उन सभी स्थानों को बंद कर दोनों बच्चों को सुरक्षित कर चैन की सांस ली।
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